सहारनपुर: पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर समेत कई जिलों में ब्रिटिशकाल में सुल्ताना डाकू के खौफ से थानों की स्थापना की गई थी. आजादी के दीवाने भी अपनी ताकत से अंग्रेजों के पांव उखाड़ रहे थे. डाकुओं से सुरक्षा और आंदोलनकारियों पर दबाव बनाने के लिए थानों की स्थापना करनी पड़ी थी. तब देहरादून और हरिद्वार सहारनपुर जिले का हिस्सा हुआ करते थे. मुजफ्फरनगर भी जिला नहीं था. वेस्ट यूपी का लंबा चौड़ा क्षेत्र मेरठ कमिश्नरी के अंतर्गत आता था. पुलिस अधीक्षक कार्यालय की स्थापना 1909 में हुई थी. फिर 1907 में थाना बड़गांव, 1912 में थाना चिलकाना, बिहारीगढ़, मिर्जापुर, नकुड़, गंगोह कोतवाली, नगर कोतवाली, देहरादून कोतवाली, हरिद्वार व रुड़की थाने बनाए गए थे.
देश आजाद होने के बाद आबादी बढ़ने के साथ अन्य थानों की स्थापना हुई थी. वर्तमान में जनपद में थानों की संख्या 22 तक पहुंच गई है. महानगर में थाना कुतुबशेर, कोतवाली देहात, थाना जनकपुरी आजादी के काफी समय बाद बने हैं. कभी जिले में सिर्फ एक कप्तान हुआ करता था, अब यहां एसएसपी के साथ दो अपर पुलिस अधीक्षक तैनात हैं. डाकू सुल्तान के खौफ से बने थाने की कहानी कहानी पिक्चरों में भी देखने को मिलती है.डाकू सुल्ताना चिट्ठी डालकर डकैती को देता था अंजाम
साहित्यकार डॉ वीरेंद्र आज़म ने लोकल 18 से बात करते हुए बताया कि यह बात बिल्कुल सही है कि सुल्ताना डाकू का ख़ौफ़ सहारनपुर, हरिद्वार, बिजनौर, कोटद्वार और कुमाऊं क्षेत्र में था. सुल्ताना डाकू की एक विशेषता यह थी कि वह भी और उसके गिरोह के सब सदस्य पुलिस की ड्रेस में रहते थे और दूसरे वह डाका डालने से पहले जिसके यहां डाका डालता था उसके यहां एक चिट्ठी भेज करके सूचना देता था कि मैं इस दिन डाका डालने आऊंगा और उसी तारीख में जाकर वह डाका डालता था. पुलिस ने कई बार उसको पकड़ने की कोशिश की दसियों बार दबिश दी गई, लेकिन पुलिस उसे पकड़ नहीं पाई. करीब ढाई सौ से तीन सौ साल पहले नजीबुद्दौला ने जिनके नाम पर नजीबाबाद है, वहां एक किला बनवाया था वहां आज भी उसके खंडहर है. बाद में सुल्ताना ने उस किले पर कब्जा कर लिया और उसे अपना अड्डा बना लिया. पुलिस की उस किले में जाने की हिम्मत नहीं होती थी.
डाकू सुल्ताना पुलिस की वर्दी पहनकर देता था घटनाओं को अंजाम
डाकू सुल्ताना के बारे में एक किस्सा आता है कि कोटद्वार क्षेत्र के जमींदार उमराव सिंह थे. उमराव सिंह को डाकू सुल्ताना ने एक चिट्ठी भेजी कि मैं इस दिन तुम्हारे यहां डाका डालने आऊंगा. उमराव सिंह ने गुस्से में अपने एक आदमी को चिट्ठी दी और कहा कि जाओ पुलिस को यह सूचना देकर आओ. कोटद्वार में थाना था, तो लगभग 20 किलोमीटर का वह सफर पड़ता था और लगभग जंगलों से होते हुए आना पड़ता था. जमीदार उमराव सिंह ने अपने नौकर को अपना घोड़ा दिया कि तुम इस घोड़े से जाओ और जल्दी सूचना देकर आओ. नौकर घोड़े पर जा रहा था तो रास्ते में एक नहर पड़ती है वहां सुल्ताना और उसके साथी नहा रहे थे. सुल्ताना ने घोड़े पर कोई आदमी आ रहा है देखा और उसे रोका. सुल्तान ने देखा कि घोड़ा तो किसी जमीदार का लग रहा है, लेकिन इस घोड़े पर नौकर बैठा है. जब उस नौकर से पूछा गया तो नौकर ने बताया कि जमींदार ने चिट्ठी भेजी है और यह सूचना पुलिस को देनी है. जबकि सुल्ताना डाकू पुलिस की वर्दी में ही रहता था तो नौकर ने डाकू को पुलिस समझकर चिट्ठी थमा दी और वापस लौट गया. इस बात से डाकू सुल्ताना को गुस्सा आ गया और उसने जमीदार उमराव सिंह को गोली मार दी.
डाकू सुल्ताना गरीब लोगों की करता था मदद
डाकू सुल्ताना के बारे में एक कहावत यह भी है कि वह बड़े सेठ लोगों को मार करके एक बड़ के पेड़ पर लटका देता था, जिससे उसका आतंक बढ़ गया था. दूसरी तरफ बहुत गरीब नवाज भी था किसी छोटे दुकानदार से सामान लेता था तो उसे दो गुना पैसे देता था, गरीब कोई आदमी उसके यहां चला गया कि मेरी बेटी की शादी है तो उसे चंदा देता था. उसके उस ख़ौफ़ से ब्रिटिश शासन में भी इतना हड़कंप था कि यहां बिहारीगढ़ थाना, थाना फतेहपुर, नजीबाबाद सहित कई थाने उसके खौफ के कारण बनाए गए थे.डाकू सुल्ताना को पकड़ने के लिए ब्रिटिश शासन ने भेजा था स्पेशल अफसर
डाकू सुल्ताना को पकड़ने के लिए ब्रिटिश शासन ने स्पेशल अफसर कैप्टन यंग भेजा था. कैप्टन यंग ने 1923 में सुल्ताना और उसके कुछ साथियों को गिरफ्तार किया और जून 1923 में हल्द्वानी की एक जेल में उसे फांसी दी गई. यह डाकू सुल्ताना का इतिहास है और जब उसको फांसी दी गई लगभग वह 30 साल का था. लगभग 10 साल डाकू सुल्ताना के आतंक का दौर रहा.