Uttar Pradesh

Success Story: पिता की एक दिन की कमाई ₹500, एक बेटा PhD स्कॉलर, दूसरे को मिला 65 लाख का जॉब ऑफर



Success Story: ये कहानी कामयाबी की दहलीज पर पहुंचे दो भाइयों की है. निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में जन्में, पले-बढ़े. घर में कुल जमा दस लोग. 6 बहन भाई, मां-पिता, दादा-दादी. कमाने वाले इकलौते BUMS डॉक्टर पिता. गांव का घर चौराहे के पास. घर की सफेद पुती दीवारें, उनपर नीले दरवाजे. गांव के घर की बैठक पापा का क्वलीनिक हुआ करती. तब वहां उसे दुकान कहते, उसी दुकान की कमाई से हमारा घर चलता. गांव में जब क्लिनिक खोला तो शुरुआती दौर में वे एक मरीज से 10 रुपए फीस लेते. दिन भर में 10 से 15 मरीज आ जाते, ये संख्या कभी बढ़ जाती और कम भी होती. इसी परिवार के दो बच्चों ने मां-पिता को गौरवान्वित किया है. घर के बच्चों में चौथे नंबर के युसुफ सेंट्रल यूनिवर्सिटी जामिया में पीएचडी स्कॉलर हैं. सबसे छोटे मुमताज को 65 लाख का जॉब ऑफर मिला है लेकिन यहां तक वे कैसे पहुंचे. उनके लिए हर दिन तलवार की धार पर चलने जैसा रहा. पढ़िए उनके संघर्ष की कहानी.

5 बरस की उम्र में बीमार, अनडाइग्नोस्ड बीमारीघर में सबसे छोटा बच्चा जन्मा. नाम रखा मुमताज. सबसे छोटा बच्चा, मां- पिता के साथ साथ बड़े बहन-भाइयों का भी राजदुलारा. मुमताज के हिस्से आया दुलार थोड़ा और ज्यादा रहा. जिस उम्र में बच्चा भाग-भाग के घर के छोटे-छोटे काम कर खुद को बड़ा कहलवाता है, तब 5 बरस की उम्र में वह बीमार हुआ. स्कूल में दाखिला तो हुआ लेकिन सिर्फ पेपर देने जाता. दिन भर बिस्तर पर लेटा रहता. पेट दर्द ऐसा जितनी ताकत बच्चे में नहीं, उससे ज्यादा तड़प जाए. MRI, X-RAY, अलट्रासाउंड में कोई परेशानी मालूम नहीं पड़ती. मां-बाप इलाज के लिए यूपी के जिला बुलंदशहर में बसे गांव सांखनी से दिल्ली आ गए. दर दर भटके. दिल्ली का कोई मेडिकल कॉलेज नहीं बचा जिसमें पिता ने बच्चे की रिपोर्ट्स दिखाकर सजेशन न लिया हो. लेकिन बीमारी किसी की समझ नहीं आती. अनडाइग्नोस्ड बीमारी के लिए कोई दवा समझ नहीं आती, डॉक्टर दवा देते तो भी हजम नहीं होती. पिता हैं तो BUMS डॉक्टर लेकिन मॉडर्न मेडिसिन की पढ़ाई भी की. मेरे ट्रीटमेंट के लिए Gastroenterology को गहराई से पढ़ा. एलोपैथी दवाओं की नॉलेज गहराई से हासिल की. जब हर ओर से हार मान लेते तो खुद ही इलाज करने लगते. इतनी बीमारी के बाद भी वह क्लास में शुरू से ही टॉपर रहा.

बीमारी के चलते फिजिकल ग्रोथ बिलकुल रुक गईस्कूल जाए बिना, घर में पढ़ाई. कभी पिता पढ़ाते तो कभी भाई-बहनें. पढ़ने में होनहार बच्चा. बीमारी के चलते फिजिकल ग्रोथ रुकने लगी, मेंटल ग्रोथ भी इफेक्ट होने लगी. बच्चा खाना नहीं खाता,  लिक्विड के सहारे सांसे चलती. रोटी खाता तो उल्टियां होती. बॉडी में एनर्जी नहीं रहती.

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एक वक्त ऐसा भी आया आईवी ड्रिप लगाने के लिए शरीर में कोई जगह नहीं बची थी. हाथों में सूजन आ जाती. मम्मी पापा को रोते देखा है. पूरी बॉडी छिदी रहती. साल भर में ज्यादातर दिन ग्लूकोज चढ़ता रहता.
घर की पहली मंजिल पर बाहर की ओर वाले कमरे में उसका बिस्तर लगा रहता. बिस्तर के करीब पढ़ाई से गुदगुदाने तक, हर किताब पापा ने लाकर रखी. बचपन से ही किताबें दोस्त बनती चली गईं. हसरत से खेलते बच्चों को खिड़की से निहारता. पक्के दोस्तों के किस्सों में भाई-बहनें हैं. 2006 में दिल्ली के GTB हॉस्पिटल में गेस्ट्रो एंट्रोलोजिस्ट स्पेश्लिस्ट सीनियर सर्जन से मिले. सर्जरी हुई.

एम्स में पढ़ाई के दौरान मुमताज.

आंत में थी ये परेशानी5वीं के पेपरों के बाद 2006 में सर्जरी हुई. सर्जरी में पता चला आंत के अंदर की परत का टिश्यू सूखा था. करीब 1 इंच के हिस्से की कोशिकाएं मर चुकी थी. वहां ब्लॉकेज बना हुआ था. कोई भी खाना खाता तो वह उस हिस्से से पार नहीं होता था. सर्जरी में उस हिस्से को काटकर निकाला गया. 2 महीने तक रिहेबिलिटेशन के लिए वहीं रहा.

तबियत धीरे धीरे बेहतर हुई. दवा चलती रहती. छठी क्लास बीच में जॉइन की. 7वीं क्लास से स्कूल तो जाने लगा लेकिन सिर्फ पढ़ाई करनें. खेल कूद तब भी अरमानों में रहा. शरीर में कहीं भी खिंचाव करना मना था. लिमिटेड चीज़ें ही खाने का हिस्सा रहती. दवाओं ने बचपन से ही जिंदगी में अहम जगह बना ली थी. मेरे लिए चल पाना भी ठीक होने जैसा था. गांव से ही 8वीं पास करने के बाद परिवार दिल्ली शिफ्ट हुआ. दिल्ली का ये घर सिर्फ 25 गज का था. घर में दो कमरे थे, ऊपर-नीचे. दिल्ली के घर में मां-पिता, भाई-भाभी, मैं और एक बहन रहते. गांव में पढ़ाई का कमरा अलग था. मेरा बड़ा सा कमरा अलग, उसमें बाहर की ओर खुलने वाली खिड़कियां. खुला आंगन. वो सुकून यहां नसीब नहीं हुआ. हमेशा उन चीज़ों के लिए संघर्ष किया.
9वीं क्लास में दिल्ली के यमुना विहार इलाके में सरकारी स्कूल में दाखिला लिया. ये स्कूल सेकंड शिफ्ट में चलता था. फिर पेट दर्द होने लगा. दर्द ऐसा जो लगातार 8-10 घंटे रहता. तबियत बिगड़ती गई, 9वीं में 75% नंबर आए लेकिन मेरे लिए ये खराब नंबर थे. हमेशा 95% से ज्यादा पाकर टॉपर रहा था.

10वीं के पेपर से पहले अस्पताल में भर्ती9वीं क्लास में बिगड़ी तबियत भी डॉक्टर्स के लिए मिस्ट्री रही. वक्त बीतता गया, 10वीं के प्री-बोर्ड एग्जाम में 15 दिनों तक अस्पताल में भर्ती रहा. दो पेपर भी छूटे.

फाइनल बोर्ड एग्जाम से दो महीने पहले ज़िंदगी फिर आईवी ड्रिप के सहारे बीतने लगी. डॉक्टर्स को आंत में टीबी का शक हुआ. बीमारी कन्फर्म नहीं हुई लेकिन टीबी का ट्रीटमेंट चला. 8 महीने हेवी दवाएं खाईं. खराब साइडइफेक्ट. टीबी की दवाएं खाते हुए 10वीं के फाइनल बोर्ड एग्जाम दिए.
10वीं में 8.8 CGPA यानि 83.6% नंबर आए. 11वीं में साइंस स्ट्रीम ली. 11वीं क्लास का पूरा साल बीमारी में बीता, स्कूल बहुत कम गया. अटेंडेंट शॉर्ट. स्कूल जाने में परेशानियां. वहां मेडिकल सर्टिफिकेट जमा हुए. 11वीं के पहले टर्म के बाद फिर पापा ने ही ट्रीटमेंट किया, मैं बेहतर होने लगा. 15 सालों तक बीमार रहने के बाद 12वीं में फिट रहा. 12वीं के प्री बोर्ड में भी टाइफाइड हुआ. 12वीं के बाद से तबियत ठीक है.

पापा की तरह डॉक्टर बनना चुना.

MBBS करने की ठानी थीतब 12वीं पास करने के बाद BSC केमिस्ट्री कर, केमिस्ट्री में करियर बनाना चाहता था. लेकिन पापा की मेहनत से अपनी सुधरी तबियत देख उन्हीं की तरह डॉक्टर बना चुनना. वे आयुर्वेदिक & यूनानी तिब्बिया कॉलेज & हॉस्पिटल (Ayurvedic & Unani Tibbia College & Hospital) से पढ़े हैं. इस सरकारी कॉलेज की स्थापना 1921 में महात्मा गांधी ने की थी. ये सेंट्रल काउंसिल ऑफ इंडियन मेडिसिन से रिकगनाइज्ड और दिल्ली यूनिवर्सिटी से एफिलिएटेड है. मैंने फाइनली मेडिसिन के लिए ट्राई करने का फैसला किया. 2013 में पहली बार नीट अटेंप्ट में 357 नंबर आए, लेकिन काउंसलिंग में MBBS न मिलकर BDS मिला. फिर BAMS (बैचलर ऑफ आयुर्वेदिक मेडिसिन एंड सर्जरी) में DU के आयुर्वेदिक & यूनानी तिब्बिया कॉलेज में ही एडमिशन लिया. लेकिन ज़िंदगी को कहीं और ही ले जाना था, कोर्स के दौरान लगने लगा आयर्वेदिक में ज्यादा कुछ नहीं कर पाऊंगा. BAMS ड्रॉप किया.

नीट के दूसरे अटेंप्ट की तैयारीडर्मेटोलॉजी और एस्थेटिक्स में करियर बनाना था, ये मार्केट में नया टर्म है. पहले सिर्फ डर्मेटोलोजिस्ट हुआ करते थे. ‘एस्थेटिक्स’ कॉस्मेटिक एंड केयर के विज्ञान को रिप्रेजेंट करता है, स्किन और हेयर  ग्रूमिंग के बारे में सिखाता है. इसी काम को करने की चाह में दूसरी बार नीट की तैयारी शुरू की.

बड़ी-महंगी कोचिंग में जाना हमारी हैसियत के बाहर था. घर के करीब कोचिंग सेंटर जॉइन किया.

AIIMS AIR- 18 पाई

AIIMS में मिला दाखिलानीट में दूसरी बार में 2014 में  220  नंबर आए. आत्मविश्वास टूटा लेकिन पेरेंट्स-फैमिली ने हौसला नहीं टूटने दिया. तीसरी बार नीट की तैयारी की लेकिन तब पेपर से पहले बुखार आया, तब 467 नंबर आए. फिर से दाखिले के वक्त BDS ऑफर हुआ. कहते हैं, ‘चाहत फूल की है लेकिन ऊपर वाला बगीचा देना चाहता है.’ अब मुझे लगता है इसलिए ही मुझे वो नहीं मिला, जिसकी तैयारी कर रहा था. 2015 में AIIMS अपना एंट्रेंस अलग कंडक्ट करता था. तब वह टेस्ट भी क्लीयर हुआ, AIIMS AIR- 18 पाई. इसके आधार पर 2015 के बैच में ‘बैचलर ऑफ ऑपथैलमिक साइंसेज'(Bachelor of ophthalmic medical sciences) में दाखिला मिला.

ज़िंदगी ने मुझे जो दिया, उससे मैं अलग इंसान बना. शर्मीला स्वभाव. चुपचुप रहता. लेकिन एम्स दिल्ली से पढ़ना मेरी ज़िंदगी का टर्निंग पॉइंट बना. एम्स की सालाना ट्यूशन फीस और अन्य मिलाकर 1250 रुपए थी. पूरे कोर्स की हॉस्टल फीस 3000 रुपए थी. दाखिले के बाद घर से 10 हजार तक खर्च मिलता. ये बंधा हुआ महीने का खर्च नहीं था, जब जरुरत होती, घर वाले भेज दिया करते. मैं जिस पारिवारिक परिवेश से हूं, ये रकम भी हमारे लिए मामूली नहीं.
मेडिकल स्टूडेंट रहते हुए मॉडलिंग का मिला मौकाAIIMS में पढ़ना अपने आप में गौरवान्वित करता है. ये मेरी ज़िंदगी का वह पहला संस्थान रहा, जहां पूरी तरह रेगुलर रहकर पढ़ाई कर सका. ‘बैचलर ऑफ थालमिंग मेडिसिन साइंसेज’ पढ़कर आंखों की जांच कर सकते हैं. चेकअप कर सकते हैं. बीमारियों को डाइग्नोज कर सकते हैं. ट्रीटमेंट कर सकते हैं. दवा भी दे सकते हैं. लेकिन सर्जरी नहीं कर सकते.

मोतियाबिंद की सर्जरी, चश्मा हटाने की सर्जरी, आंख के बाहरी हिस्से की सर्जरी करने लायक बनने के लिए जो सफर तय करना था.उसके लिए एम्स से ग्रेजुएशन सिर्फ पहली सीढ़ी था. अभी बहुत लंबा सफर बाकी था.
बैचलर ऑफ थालमिंग मेडिसिन साइंसेज’ करने के बाद सर्जिकल फील्ड की पढ़ाई इंडिया में अभी नहीं है, उसकी पढ़ाई विदेश में है, लेकिन बाहर जाकर पढ़ना हमारी हैसियत से बाहर. इस पढ़ाई के बाद मोतियाबंद की सर्जरी कर सकते हैं. एम्स में पूरी जी-जान से पढ़ाई करता लेकिन डर्मेटोलॉजी में कुछ करने की चाह मन के कोने में बनी रही.एम्स से ग्रेजुएशन के दौरान दूसरे साल में ये चाहत दूसरी दुनिया में ले गई.ग्रेजुएशन के सेकंड ईयर से मॉडलिंग का करियर शुरू हुआ. इसी साल दो सीनियर्स ने UK में पढ़ाई के लिए अप्लाई किया, उन्हें 80% स्कॉलरशिप मिली थी. वे मेरे लिए प्रेरणा बने. तब पता चला विदेश में पढ़ना है तो 3 से 4 रिसर्च पेपर बेहतरीन जर्नल्स में पब्लिश होने चाहिए. आंखो की सर्जरी करने की पढ़ाई के लिए AIIMS से ग्रेजुएशन के साथ ही रिसर्च प्रोजेक्ट पर काम करना करने के लिए ICMR के कोलेब्रेशन में प्रोफेसर राधिका टंडन के अंडर में रिसर्च प्रोजेक्ट जॉइन किया. तब गहराई से समझ बनी आगे क्या करना क्या है.

AIIMS से ग्रेजुएशन के साथ ही रिसर्च प्रोजेक्ट पर काम किया.

मॉडलिंग और ग्लासगो कैलिडन यूनिवर्सिटी में दाखिलाएम्स में पढ़ाई के दौरान स्टूडेंट्स एसोशिएशन से जुड़ा था. यहां के फेस्ट पल्स में मिस इंडिया का ऑडिशन होता है. कॉलेज फेस्ट पल्स को आयोजित करने वाली बॉडी के ऑर्गनाइजर की टीम में था. पढ़ाई के साथ इस एक्टिविटी से भी जुड़ा. डर्मेटोलॉजी में कुछ करने की चाह में फेस्ट में ग्रूमिंग सेशन देना शुरू किया. वहां मॉडलिंग में जाने के सजेशन मिले. 7 इंच की सर्जरी मार्क के साथ जितनी एक्सरसाइज कर सकता था की. फिट हुआ तो लगा मॉडलिंग में ट्राई करना चाहिए.

Mr. delhi NCR मॉडलिंग शो में अप्लाई किया. लेकिन मैं डरा हुआ था, मॉडल्स काफी बड़े बड़े घरों से आते हैं, हम उनके जैसे तो दूर आस पास भी कहीं नहीं थे. मैं ऑडिशन देने बहन के साथ गया था.
डांस किया, गाने गाए. टॉप 5 में गया. फिनाले में Mr. delhi NCR जीता. बाद में मोस्ट इंस्पाइरिंग पर्सनैलिटी, Mr. हैंडसम 2019, बेस्ट फोटोजेनिक फेस, बेस्ट स्माइलिंग ऑफ द ईयर के टाइटल से नवाजा गया. मॉडलिंग से सीखा खुद को कैसे प्रेजेंट करना है. यहां देखा जाता है दुनिया की नॉलेज कितनी है. आपमें कितना कॉन्फिडेंस है, दुनिया को किस नजरिए से देखते हैं. सिर्फ लुक उसमें काम नहीं करता. पहले शूट की एक दिन की पेमेंट 5 हजार मिली. फैशन शोज, फैशन शूट्स मिलते गए, करता गया. ये मेरे लिए जेब खर्च का काम करता. इस बीच ग्रूमिंग सेशन दिए और एम्स का फाइनल ईयर आ गया, तब मॉडलिंग करियर रोका. आंखों का सर्जन बनना है. पढ़ाई के लिए बाहर जाना है. पैसा नहीं है, लेकिन चाह है और जहां चाह, वहां राह. Ophthalmology में एंटर करने के लिए सर्जिकल फील्ड में जाने का फैसला लिया. उसके लिए UK में ग्लासगो कैलिडन यूनिवर्सिटी (मेन यूनिवर्सिटी लंदन में) में एडमिशन प्रोसेस शुरू किया.

पाई 60 लाख से ज्यादा की स्कॉलरशिप

अप्लाई करते वक्त डर था, रिस्ट्रिक्शन भी. साफ पता था, स्कॉलरशिप नहीं मिली तो वहां नहीं पढ़ सकूंगा. वहां की सिर्फ ट्यूशन फीस ही 60 लाख के करीब है. हम लोग किसी भी सूरत में 60 लाख देने का सोच भी नहीं सकते.
सीनियर्स से सलाह ही, सबने अप्लाई करने के लिए कहा. एकेडमिक बैकग्राउंड्स में मेरे कुछ रिसर्च पेपर दाखिले में काम आए. अप्लाई करने के बाद 1 महीने तक कोई रिस्पॉन्स नहीं आया. तब तक एम्स में इंटर्नशिप के आखिरी दिन थे, आगे का कुछ पता नहीं था.

फिक्रमंद रहता, आगे क्या होगा, कुछ नहीं पता. लेकिन उम्मीद रखी. उम्मीद से हिम्मत आती है और हिम्मत से ही सपने पूरे होते हैं. फिर एक दिन यूनिवर्सिटी की ओर से ईमेल मिला, लिखा था वे इंटर्व्यू करेंगे.
आशाएं जगीं. 3 इंटरव्यू हुए. पहला बेसिक. दूसरा क्लीनिकल. तीसरा फाइनल राउंड, जिसमें यूके क्यों पढ़ना चाहते हैं समेत तमाम बातें पूछी गईं. सेलेक्शन हुआ. 100% स्कॉलरशिप मिली. Bill and Melinda gates foundation scholarship + Commonwealth masters scholarship United Kingdom पाई. इसके अलावा दो साल की रजिस्ट्रेशन फीस में करीब 3 लाख रुपए खर्च हुए. ये रकम भी हमें जुटानी पड़ी.

ऑडिशन में बहन के साथ.

ग्लासगो कैलिडन यूनिवर्सिटी से पढ़ाईग्लासगो कैलिडन यूनिवर्सिटी में मास्टर्स में MS इन क्लिनिकल ऑफ थर्मोलॉजी दाखिला लिया है. ये प्री सर्जीकल कोर्स 2.5 साल का है. कोविड के वक्त दाखिला हुआ, ट्रेवल रिस्ट्रिक्टिड, यूनिवर्सिटी बंद. वहां से दो ऑप्शन मिले, 1 साल रुक जाएं या फिर कोर्स शुरू करना चाहते हैं तो अपने ही रीजनल इंस्टीट्यूट में जॉइन करें. 2019 का सिर्फ हमारा ही इकलौता बैच है, जिसकी क्लास डिस्टेंस मोड से या वर्चुअल चलती हैं. एम्स में ही प्रैक्टिस का मौका मिला. MS का पहला साल एम्स में ही पूरा किया, ग्लासगो से क्लास ऑनलाइन चलीं. MS का 1 साल एम्स से करने के दौरान भी स्कॉलरशिप से ही इंडियन स्टेंडर्ड के मुताबिक बर्सरीज (खर्च का पैसा) 38 हजार रुपए महीना मिली.

मेरा परिवार मुझे विदेश में या प्राइवेट संस्थान में पढ़ाने की हैसियत नहीं रखता. ” एम्स की तरफ से मिलने वाली बर्सरीज से मेरा खर्च चला. उसके साथ साथ थोड़ी सेविंग्स भी थी. मैं उसी से अपनी पढ़ाई का खर्च चलाता है. phD कर रहे बड़े भाई ने भी बहुत मदद की.
मास्टर्स के दूसरे साल में दुबई में रहकर पढ़ाईबाकी दुनिया की हेल्थ फैसिलिटी समझने के लिए दुबई जाना चुना. इसके लिए दुबई हेल्थ ऑथोरिटी का एग्जाम पास किया. वहां जाने के लिए एप्लीकेशन एक्सेप्ट हुई. दुबई में मेडिक्लिनिक मिडिल ईस्ट हॉस्पिटल में 6 महीने के लिए बतौर ऑब्जर्वरशिप काम करने के लिए अपॉइंट किया. दुबई में स्कॉलरशिप से हर महीने का खर्च वहां की इकोनॉमी, वहां के खर्चों के मुताबिक मिलता है. वहां काम के दौरान ऑब्जर्वरशिप कम मेडिकल डायरेक्टर की पोस्ट के लिए अप्लाई करने का मौका मिला, उसके लिए सेलेक्ट हुआ. 14 महीने दुबई में काम किया. अभी 6 महीने का कोर्स बाकी है. जिसे यूनिवर्सिटी में जाकर ही पूरा करना होगा. वहां हैंड्स ऑन ट्रेनिंग मिलेगी फिर फाइनल असेस्मेंट एग्जाम होगा, जिसके बाद कॉन्वोकेशन में डिग्री मिलेगी.

मां के साथ मुमताज.

65 लाख की नौकरी का ऑफरMS के बाद, आंखो का सर्जन बनने के लिए, यूके जाकर पहले 13 महीने प्रैक्टिस करनी होगी. फिर 18 महीने के कोर्स में दाखिला लेना होगा. जॉब के साथ कोर्स कर सकते हैं, वहां की सरकार इसकी इजाजत देती है. अब यूके से जॉब ऑफर हुई है. जॉब करने के लिए पहले यूके मेडिकल काउंसलिंग का एग्जाम पास करना होगा. उसके बाद वहां प्रैक्टिस कर सकूंगा. जॉब के लिए यूके में इंग्लैंड, मैनचेस्टर और लंदन 3 लोकेशन मिली हैं, जिसमें से 1 चुननी है. मुझे मैनचेस्टर और लंदन में किसी एक को चुनना होगा.

जॉइनिंग बतौर जूनियर कंसल्टेंट होनी है, इसके लिए सालाना सैलरी 65 लाख के करीब का ऑफर है. अब मॉडलिंग करियर में एक्टिव नहीं हूं. मुझे अपने परिवार की आर्थिक स्थिति देखते हुए फैसले लेने हैं. कामयाब डॉक्टर बनकर अपने परिवार को सुविधाओं भरी जिंदगी देनी है. घर वालों ने मेरे लिए जो किया, वो तो कभी नहीं लौटा सकूंगा… उन्हें खुशनुमा, सुकून भरी ज़िंदगी देने, लोगों की मदद करने का ख़्वाब है.
वर्तमान में भी पापा का छोटा सा क्लिनिक दिल्ली के भगीरथी विहार में है. 50 रुपए फीस लेते हैं. दिन भर में दस के आसपास मरीज आ जाते हैं.

युसुफ भी इसी परिवार के चौथे नंबर की संतान हैं. इनसे बड़ी 2 बहनें, 1 भाई है. युसुफ का बचपन उस दौर में बीता जब बच्चे स्कूलों में बैग नहीं झोला कंधे पर लटकाए, तख्ती-क़लम-दवात हाथ में लिए दौड़े जाते थे. स्कूल का झोला, घर की किसी पुरानी पतलून के कपड़े से सिला होता. स्कूल में शुरुआती क्लास कच्ची पहली, पक्की पहली और फिर पहली हुआ करती. कच्ची पहली, पक्की पहली ही उस तख्ती,-क़लम, दवात वाले दौर का प्री प्ले, प्ले ग्रुप, नर्सरी, केजी सब था. दाएं हाथ को सिर पर से लेजाकर बांया कान पकड़ने लगते तो पहली में नाम चढ़ता.जब 12 रुपए की रफ कॉपी खरीदना था मुश्किलयूपी के गांव सांखनी में जन्में युसुफ पांचवीं तक वहीं के सरकारी प्राइमरी स्कूल ‘इस्लामिया स्कूल’ से पढ़े. शुरुआती पढ़ाई का माध्यम उर्दू रहा. पांचवी तक हिंदी को एक सब्जेक्ट की तरह पढ़ा. चौथी क्लास तक इंग्लिश की कोई किताब नहीं देखी थी, पहली बार a,b,c,d वाली किताब पांचवीं में मिली. ज़िंदगी की 37 ईद मना चुके युसुफ बचपन को बताने लगते हैं तो उसमें खेल-कूद के किस्से पहले पहल उनकी जबान पर नहीं आते. कहते हैं,

उस दौर में रफ कॉपी 12 रुपए की आती थी.लिखते लिखते कॉपी भर जाती तो हमारे लिए नई खरीदना मुश्किल काम था. कॉपी के लिए इंतजार करते. अम्मी-पापा ने हमेशा हमारे लिए कॉपियां खरीदी लेकिन मुश्किल से उसका इंतजाम किया.
लेकिन हम सब भाई बहनों को पढ़ाया. तब क्या वक्त था. कैसे ज़िंदगी कट रही थी. बताते हुए युसुफ की आंखे भर आती हैं. लंबी खामोशी के बाद… पापा की मुश्किलें बताने लगाते हैं.

युसुफ

पिता का संघर्ष, बड़ा परिवार, कम कमाईपापा का क्लिनिक पहले दिल्ली में था, फिर गांव के घर की बैठक क्लिनिक बनी. कुछ जमीन थी जिससे कभी गेंहू, कभी थोड़ा पैसा आता.जो भी आता, घर खर्च का हिस्सा बनता. जब पापा का क्लिनिक गांव के घर में बना था तब वे प्रति मरीज 10 रुपए लेते थे. एक दिन में करीब 15 तक मरीज आ जाते थे.

तब हम 4 भाई बहन, अम्मी पापा, दादा दादी समेत 8 लोग थे.हम साफ तौर पर कह सकते हैं.एक दिन की कमाई 100-150 के बीच रहती थी. हमारा कुनबा इसी कमाई से चलता था.
पिता की एजुकेशनपापा ने बुलंदशहर आईपी कॉलेज से bsc की. दिल्ली यूनिवर्सिटी के तिब्बिया कॉलेज से BUMS किया. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से mbbs का पता चला.खबर मिली फॉर्म भरे जा रहे हैं. तब सुविधाओं भरे वाहन नहीं थे,जिस दिन पता चला, उसी दिन दाखिले का फॉर्म भरने AMU पहुंचे. लेकिन आवेदन की आखिरी तारीख थी. जिस लम्हे में आवेदन खिड़की पर पहुंचे, उसी घड़ी खिड़की का दरवाजा बंद करते हुए कहा गया, अब खिड़की बंद होने का समय है.पापा MBBS के लिए एलिजिबल थे लेकिन दाखिला नहीं हुआ. फिर उन्होंने bums डिग्री के साथ ही सेल्फ प्रैक्टिस शुरू कर दी थी.

ग्रेजुएशन छूटी, गृहस्थी संभालीआज सेंट्रल यूनिवर्सिटी जामिया मिल्लिया इस्लामिया से पीएचडी के फाइनल ईयर में पहुंचे युसुफ का पिछला वक्त याद करते हैं बताते हुए गला रुंध जाता है. आवाज थर्रा जाती है, थोड़ा ठहरकर, गहरी सांस भरकर कहते हैं.

आज भी घर और जेब खर्च का हिसाब न जोड़ना पड़े, ऐसा अब भी नहीं है. लेकिन बचपन का वक्त इससे कई गुना मुश्किल था.
युसुफ ने छठी से 12वीं तक गांव में मौजूद सरकारी स्कूल ‘हैदरी हायर सेंकडरी स्कल’ से पढ़ाई की. ग्रेजुएशन में DU के स्वामी श्रृद्धानंद कॉलेज में अलीपुर में बीएससी लाइफ साइंस में दाखिला लिया. ग्रेजुएशन के दो साल पूरे हुए तो उनका निकाह हुआ. घर गृहस्थी संभालने में लगे. बीएससी बीच में ही छूट गई. घर चलाने के लिए एक मोबाइल कंपनी से फ्रेंचाइजी लेकर स्टोर खोला.

मोबाइल स्टोर पर युसुफ.

कुछ ऐसा करना चाहता था जिससे नाम के आगे डॉक्टर लगेवक्त बीतता गया. पापा फिजिशिन, बेटे का मोबाइल स्टोर.मैं भी मन ही मन कुछ ऐसा करना चाहता था जिससे मेरे नाम के आगे भी डॉक्टर लगे. तब जाना कि डॉक्टरी की पढ़ाई नहीं की तो भी पीएचडी करके नाम के आगे डॉक्टर लग जाएगा. लेकिन कहां पीचएडी और कहां ग्रेजुएशन ड्रॉपर. इसके लिए बहुत पढ़ना था.

काम धंधा तो कुछ खास नहीं जमा लेकिन कमाई मुताबिक हम सेटल होने लगे. मुश्किलें शुरुआत से ही ज़िंदगी का हिस्सा रहीं, अब भी कुछ अलग नहीं था. रोज़ाना खर्च जितना कमाने लगा तो पढ़ने पर जोर दिया.
डिस्टेंस मोड से CCS मेरठ से BA किया. साथ में वाइफ और बहन ने भी ग्रेजुएशन की. तीनों ने मास्टर्स भी वहीं से उर्दू से किया.

5 हजार रुपए महीना की फेलोशिप से भी की गुजर-बसरपढ़ता गया और आगे का रास्ता दिखता गया. मेरे पास लाइब्रेरी, कोचिंग या कहीं से कोई सपोर्ट नहीं था.जानकारी हासिल कर कर के, काम-धंधे के साथ एम.फिल. की तैयारी की. फिर डीयू और जामिया में एमफिल में दाखिले के लिए अप्लाई किया. 2015 में जामिया में एमफिल में दाखिला पाया. 2015 में एमफिल करते हुए, बिना जेआरएफ के भी यूजीसी से नॉन नेट फेलोशिप 5 हजार रुपए महीना मिलती थी, वह मिलने लगी. मोबाइल स्टोर बंद किया.

एमफिल करते हुए जब 8 महीने गुजर गए तो देखा कुछ बच्चे पढ़ते रहते हैं. उसी दौर में jrf एग्जाम का पता चला. मैं भी तैयारी करने लगा. पहले अटेंप्ट में नेट क्लीयर हो गया. दूसरी और तीसरी बार में भी नेट पास हुआ. चौथी बार में JRF पास हुआ.
नेट पास करने वाले टॉप स्टूडेंट्स (10 या 15, ये संख्या अलग हो सकती है) को JRF कैटेगिरी में रखा जाता है.

दिल्ली उर्दू अकादमी के अवॉर्ड समारोह में युसुफ

अब PHD में 42 हजार प्रति महीना मिलते हैं2017 में उर्दू में एमफिल की. 2018 में जामिया से उर्दू में PHD में दाखिला लिया, तब तक जेआरएफ हो चुका था. इसके बाद 5 साल तक रिसर्च वर्क के दौरान अच्छी फेलोशिप मिलती है. पीएचडी के शुरुआती साल में रिसर्च वर्क के समय निदा फाजली हयात ओ जिहात (NIDA FAZLI LIFE AND CONTRIBUTION) किताब लिखी. किताब को दिल्ली उर्दू अकादमी, यूपी उर्दू अकादमी से अवॉर्ड मिले. दिल्ली उर्दू अकादमी ने 10 हजार रुपए प्रोत्साहन राशि, एक मोमेनटो, ट्रॉफी दी. यूपी उर्दू अकादमी से 15 हजार रुपए मिले .

अब पीएचडी स्टाइपेंड 42 हजार प्रति महीना मिलता है. इस रकम में घर चलाने से पढ़ाई तक सब पाट लेते हैं. दिसंबर 2023 में पीएचडी पूरी होगी. असिस्टेंट प्रोफेसर पद के लिए अप्लाई कर दिया है.
कुछ यूनिवर्सिटीज में पीएचडी को वरीयता दी जाती है. phd पूरी होने के बाद ही असिस्टेंट प्रोफेसर के पद के लिए सलेक्शन होता है. असिस्टेंट प्रोफेसर के इंटरव्यू के समय पीएचडी में मिलने वाले 30 स्कोर गिने जाते हैं. डिग्री पूरी होने से पहले इंटरव्यू देंगे तो 30 नंबर पहले ही कम हो जाएंगे. दिसंबर 2023 में पीएचडी पूरी कर 30 पॉइंट्स के साथ आगे बढ़ूंगा.

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कम उम्र में मिलने वाली सरकारी नौकरियां कौन सी हैं? सेना, रेलवे समेत कई जगह हैं मौके

.Tags: Aiims delhi, Education news, Inspiring story, Jamia UniversityFIRST PUBLISHED : May 22, 2023, 20:13 IST



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