उत्तर प्रदेश के संभल जिले में एक अनोखी परंपरा है, जहां पितृपक्ष के दौरान न तो श्राद्ध किया जाता है और न ही ब्राह्मणों को गांव में प्रवेश की अनुमति है. यह परंपरा सैकड़ों साल पुरानी है और इसके पीछे एक ब्राह्मण महिला के श्राप का डर है.
गांव के बुजुर्गों के अनुसार, कई दशक पहले भगता नगला में एक ब्राह्मण महिला पड़ोस के गांव से एक ग्रामीण के घर मृतक परिजन का श्राद्ध कराने आई थी. श्राद्ध के बाद भारी बारिश के कारण वह कई दिनों तक गांव में ही रुक गई. जब बारिश थमने के बाद वह अपने घर लौटी, तो उसके पति ने उस पर चरित्र को लेकर गंभीर आरोप लगाए और उसे घर से निकाल दिया. अपमानित और आहत ब्राह्मण महिला वापस भगता नगला लौटी और ग्रामीणों को अपनी आपबीती सुनाई. उसने गुस्से में ग्रामीणों को श्राप दिया कि यदि वे पितृपक्ष में श्राद्ध करेंगे, तो उनका बुरा होगा. उसने यह भी कहा कि उसका अपमान श्राद्ध कराने के कारण हुआ, इसलिए गांव में इस दौरान ब्राह्मणों का प्रवेश और श्राद्ध पूरी तरह बंद कर दिया जाए.
गांव वालों का वचन और परंपरा ब्राह्मण महिला की पीड़ा को देखते हुए ग्रामीणों ने वचन दिया कि वे पितृपक्ष के 15 दिनों में न तो श्राद्ध करेंगे और न ही किसी ब्राह्मण को गांव में प्रवेश करने देंगे. ग्रामीणों ने यह भी बताया कि जब उन्होंने अन्य हिंदू संस्कारों जैसे विवाह और अन्य अनुष्ठानों के लिए ब्राह्मणों की आवश्यकता जताई, तो महिला ने केवल पितृपक्ष के दौरान ब्राह्मणों से दूरी रखने की शर्त रखी. तब से यह परंपरा कायम है. ग्रामीणों का मानना है कि इस श्राप को तोड़ने से गांव को नुकसान हो सकता है.
पितृपक्ष में पूर्ण प्रतिबंध भगता नगला गांव में पितृपक्ष के दौरान न केवल श्राद्ध और तर्पण पर रोक है, बल्कि किसी भी प्रकार का दान-पुण्य, पूजा-पाठ या हवन भी नहीं किया जाता. इस दौरान यदि कोई भिक्षुक गलती से गांव में आ भी जाए, तो उसे भिक्षा नहीं दी जाती. गांव के रेवती सिंह जैसे बुजुर्ग बताते हैं कि यह परंपरा लगभग 100 साल से चली आ रही है, और ग्रामीण इसे पूरी तरह निभाते हैं.
अन्य संस्कारों का पालन पितृपक्ष के 15 दिनों को छोड़कर, गांव में अन्य सभी हिंदू रीति-रिवाज और संस्कार सामान्य रूप से निभाए जाते हैं. प्रथम नवरात्रि पर गांव में परंपरागत हवन और पूजा-पाठ का आयोजन होता है. विवाह और अन्य संस्कारों में ब्राह्मणों की उपस्थिति और सहभागिता भी होती है. लेकिन पितृपक्ष में यह गांव पूरी तरह शांत रहता है, और ब्राह्मणों का प्रवेश पूरी तरह वर्जित रहता है.
श्राप का डर आज भी कायम ग्रामीणों का कहना है कि यह परंपरा तब तक कायम रहेगी, जब तक “धरती और आसमान” कायम हैं. श्राप के डर से कोई भी ग्रामीण इस परंपरा को तोड़ने की हिम्मत नहीं करता. लोगों का मानना है कि यदि श्राद्ध किया गया, तो कोई न कोई अनहोनी हो सकती है. यह अनोखी परंपरा न केवल स्थानीय लोगों के बीच चर्चा का विषय है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति में एक अनोखा उदाहरण भी प्रस्तुत करती है, जहां एक श्राप ने सैकड़ों साल पुरानी परंपरा को जन्म दिया.