Uttar Pradesh

नई पीढ़ी में ग़ज़ल और नज़्म का बढ़ता क्रेज! उर्दू शायरी के उस्ताद अहमद मुस्तफ़ा से जानें क्या है दोनों में फर्क।

नई पीढ़ी में उर्दू शायरी के प्रति दिलचस्पी तेजी से बढ़ रही है, खासकर ग़ज़ल और नज़्म जैसे विधाओं के प्रति युवाओं में क्रेज देखा जा रहा है. मशहूर शायर अहमद मुस्तफ़ा बताते हैं कि ग़ज़ल और नज़्म दोनों की संरचना, रदीफ़-क़ाफ़िया और पेशकश के पैमाने अलग होते हैं, जिन्हें समझकर ही इन विधाओं की असली खूबसूरती महसूस की जा सकती है. उर्दू भाषा की दुनिया बहुत खूबसूरत और दिल को छू लेने वाली है. उर्दू को ग़ज़ल, नज़्म और दूसरी शायरी के प्रकार ने इसे हमेशा खास बनाया है. अलीगढ़ के मशहूर शायर अहमद मुस्तफ़ा कहते हैं कि उर्दू शायरी सिर्फ़ लफ्ज़ों का खेल नहीं, बल्कि एक एहसास और तहज़ीब है, जो हर दौर में लोगों के दिलों तक पहुंचती रही है. आज के दौर में नई पीढ़ी के बीच उर्दू पोएट्री के प्रति गहरी दिलचस्पी फिर से लौट रही है. इसका बड़ा कारण हिन्दी सिनेमा भी रहा है, जिसने 70 के दशक में ग़ज़लनुमा गीतों को लोकप्रिय बनाया.

शायर अहमद मुस्तफ़ा बताते हैं कि उर्दू अदब की दुनिया में ग़ज़ल को सबसे बुनियादी और अहम दर्जा दिया जाता है. यह समझ पूरी तरह सही नहीं कि उर्दू के हर शौकीन को नज़्म की गहराई का इल्म हो. उनके मुताबिक उर्दू पोएट्री का असल आधार ग़ज़ल है, क्योंकि नज़्म, कसीदा, मर्सिया जैसी सारी किस्मे इसी से निकलीं. उर्दू शायरी का सफ़र क्लासिकल दौर से शुरू होकर जदीद और फिर पोस्ट-मॉडर्न दौर तक पहुंचा, जहां दिल्ली, आगरा और लखनऊ के साहित्यिक स्कूलों ने इसे अलग-अलग पहचानें दीं. अमीर खुसरो और सर सैयद जैसे नामों ने उर्दू भाषा और अदब की तरक़्क़ी में बुनियादी भूमिका निभाई.

अच्छा शायर बनने के लिए पढ़ना जरूरीअहमद मुस्तफ़ा बताते हैं कि आज की नई नस्ल में उर्दू पोएट्री के प्रति गहरी दिलचस्पी फिर से लौट रही है. इसका बड़ा उदहारण भारतीय सिनेमा भी रहा है, जिसने 70 के दशक में ग़ज़लनुमा गीतों को लोकप्रिय बनाया. ग़ज़ल और नज़्म दोनों के अपने उसूल, पैमाने और राइमिंग स्कीमें होती हैं. उस्ताद शायर इन्हीं उसूलों का ध्यान रखते हुए शेर पढ़ते थे, तभी उनकी शायरी आज भी मिसाल मानी जाती है. अच्छी शायरी के लिए अच्छा पढ़ना ज़रूरी है. मीर, ग़ालिब, सौदा, मोमिन से लेकर फैज़, अहमद फ़राज़, इरफ़ान सिद्दीकी और शहरयार तक सभी शोरा सीखने के दरवाज़े खोलते हैं.

दिल से निकलती है अच्छी शायरीपुराने दिनों को याद करते हुए अहमद मुस्तफ़ा बताते हैं कि शायरी उनसे बचपन से जुड़ी हुई है. दूसरी या तीसरी क्लास में कही गई उनकी पहली नज़्म अख़बार में छपी और तभी से यह रुचि एक जुनून में बदल गई. उनके घराने में भी अदब और शायरी की गहरी परंपरा रही है, जिसकी वजह से यह हुनर उनकी नस्ल में चला आता है. वह खुद को मंचों का नहीं, बल्कि अपनी सुकून के लिए लिखने वाला शायर बताते हैं. खासतौर पर मज़हबी शायरी और सेहरे उनकी पसंदीदा शैली हैं. अहमद मुस्तफ़ा का कहना है कि सच्ची शायरी दिल से निकलती है और अच्छे शायर का असल निर्माण उसी वक़्त होता है जब वह लगातार पढ़ता भी है और लिखता भी है.

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