वाराणसीः इतिहास के पन्नों में कुछ किस्से ऐसे दर्ज होते हैं, जो बताते हैं कि स्वाभिमान और लक्ष्य के प्रति पागलपन क्या होता है. हैदराबाद के निजाम का दरबार सजा था. सामने एक तेजस्वी ब्राह्मण खड़ा था, ललाट पर चंदन और आंखों में एक सपना. वह सपना था काशी में एक ऐसे विश्वविद्यालय का जहां भारतीय संस्कृति और आधुनिक विज्ञान साथ-साथ चलें. जब उन्होंने चंदा मांगा तो दुनिया के सबसे अमीर आदमी माने जाने वाले निजाम ने अहंकार में अपनी पुरानी जूती उनकी तरफ उछाल दी. निजाम ने कहा, ‘मेरे पास देने के लिए बस यही है.’ कोई और होता तो इस अपमान से टूट जाता. लेकिन वो मदन मोहन मालवीय थे. उन्होंने उस अपमान को ही अपनी ताकत बना लिया और इतिहास रच दिया.
जब बीच बाजार नीलाम होने लगी हैदराबाद के शासक की इज्जतनिजाम की हरकत पर मालवीय जी विचलित नहीं हुए. उन्होंने चुपचाप वह जूती उठाई, उसे माथे से लगाया और सीधे भरे बाजार में पहुंच गए. वहां उन्होंने ढोल बजवाया और शोर मचाना शुरू कर दिया- ‘निजाम की शाही जूती की नीलामी हो रही है! जो सबसे ज्यादा दाम देगा, यह नायाब तोहफा उसी का होगा.’ देखते ही देखते वहां भीड़ जमा हो गई. लोग उस ‘शाही जूती’ को खरीदने के लिए बड़ी-बड़ी बोलियां लगाने लगे. खबर आग की तरह फैलते हुए वापस निजाम के महल तक पहुंची. निजाम के होश उड़ गए. उसे लगा कि अगर उसकी जूती किसी और ने खरीद ली तो उसकी इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी.
जूती के पैसे से मिली बड़ी मददनिजाम ने तुरंत अपने आदमियों को भेजा और भारी भरकम रकम देकर अपनी ही जूती वापस खरीदी. कहते हैं कि वह रकम इतनी बड़ी थी कि उससे बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) के निर्माण में बड़ी मदद मिली. यह मालवीय जी का जादू था. इसीलिए महात्मा गांधी ने उन्हें प्यार से ‘भिखारियों का राजकुमार’ कहा था.
156 लोगों को फांसी के फंदे से खींच लाया वो ‘जादूगर’ वकील25 दिसंबर 1861 को प्रयागराज में जन्मे मालवीय जी सिर्फ एक शिक्षाविद नहीं थे. वे एक अद्भुत वकील भी थे. उनकी वकालत का लोहा अंग्रेजों ने भी माना था. इतिहास का मशहूर ‘चौरी-चौरा कांड’ इसका गवाह है. इस कांड में 170 लोगों को फांसी की सजा सुनाई गई थी. देश में मातम का माहौल था. तब मालवीय जी ने अपना गाउन पहना और कोर्ट में उतरे. उनकी दलीलों में इतनी धार थी कि उन्होंने 156 लोगों को फांसी के फंदे से बचा लिया. सर तेज बहादुर सप्रू ने तब कहा था, ‘अगर मालवीय जी केवल वकालत करते तो वे दुनिया के सबसे बड़े और अमीर कानूनविद् होते.’ लेकिन मालवीय जी ने निजी दौलत के बजाय देश की सेवा को चुना.
भीख मांगकर खड़ा किया 1300 एकड़ का शिक्षा का मंदिर1916 की वसंत पंचमी का दिन था. गंगा के किनारे बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की नींव रखी जा रही थी. मालवीय जी का विजन साफ था- हमें ऐसे युवा चाहिए जो वेदों को भी जानें और साइंस में भी दुनिया को टक्कर दें. इस सपने को पूरा करने के लिए उन्होंने देश भर में झोली फैलाई. दरभंगा के राजा से लेकर एक गरीब किसान तक, जिससे जो बन पड़ा, उसने दिया. आज 1300 एकड़ में फैला बीएचयू, उसकी हरियाली और भव्य इमारतें मालवीय जी के उसी संकल्प का नतीजा हैं. वे चाहते थे कि भारत का छात्र गुलामी की मानसिकता से बाहर निकले.
‘सत्यमेव जयते’ को राष्ट्रीय पहचान दिलाने वाले महामनाआज हम जिस राष्ट्रीय आदर्श वाक्य ‘सत्यमेव जयते’ को गर्व से बोलते हैं, उसे घर-घर पहुंचाने का श्रेय मालवीय जी को ही जाता है. उन्होंने मुंडकोपनिषद से इस मंत्र को निकाला और इसे राष्ट्रीय पहचान दिलाई. वे कांग्रेस के चार बार अध्यक्ष रहे. वे नरम दल और गरम दल के बीच का वह पुल थे जिसने आजादी की लड़ाई को बिखरने नहीं दिया. उन्होंने सिर्फ शिक्षा ही नहीं, समाज सुधार के लिए भी बड़े काम किए. उन्होंने हजारों दलितों को मंत्र-दीक्षा देकर समाज की मुख्यधारा से जोड़ा. गंगा को अविरल रखने के लिए उन्होंने अंग्रेजों से लंबी लड़ाई लड़ी और ‘गंगा महासभा’ बनाई.
डॉ. राधाकृष्णन ने कहा था कर्मयोगीआजादी की दहलीज पर ली अंतिम सांस मालवीय जी का पूरा जीवन भारत को समर्पित रहा. उन्होंने ‘हिंदुस्तान’, ‘अभ्युदय’ और ‘द लीडर’ जैसे अखबारों के जरिए सोए हुए देश को जगाया. 12 नवंबर 1946 को जब उन्होंने अंतिम सांस ली, तो देश आजादी के दरवाजे पर खड़ा था. डॉ. राधाकृष्णन ने उन्हें ‘कर्मयोगी’ कहा था. उनके महान कार्यों के लिए कृतज्ञ राष्ट्र ने 2014 में उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से नवाजा. मालवीय जी का जीवन सिखाता है कि अगर इरादे ‘अटल’ हों तो संसाधनों की कमी कभी आड़े नहीं आती.

