Dhaincha ki kheti/जौनपुर. आधुनिक कृषि में रासायनिक उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग से मिट्टी की गुणवत्ता तेजी से बिगड़ रही है. इसी को देखते हुए जौनपुर के जिलाधिकारी डॉ. दिनेश चंद्र ने एक अभिनव पहल की शुरुआत की है. उन्होंने जैविक खेती को बढ़ावा देने के उद्देश्य से किसानों को ढैंचा की खेती अपनाने का सुझाव दिया है, जो मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने में उपयोगी सिद्ध हो रही है. डॉ. दिनेश चंद्र ने बताया कि ढैंचा एक ऐसी फसल है, जो खेत की मिट्टी में जैविक पदार्थों और नाइट्रोजन की मात्रा को बढ़ाकर प्राकृतिक खाद का काम करती है. इसकी बुवाई के महज 45 दिनों के भीतर इसे जोतकर मिट्टी में मिला दिया जाता है, जिससे ये हरी खाद बनकर अगली फसलों के लिए पोषक तत्व प्रदान करती है. इससे न केवल उत्पादन बढ़ता है, बल्कि रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता भी घटती है.
कम लागत, ज्यादा लाभ
ढैंचा के पौधे न केवल मिट्टी में नाइट्रोजन स्थिरीकरण करते हैं, बल्कि इसका पौधा वातावरण से कार्बनडाईऑक्साइड भी अवशोषित करता है, जिससे मिट्टी की गुणवत्ता और पर्यावरण दोनों में सुधार होता है. इसके पत्तों में कीटनाशक गुण होते हैं, जिससे फसलें कीटों से भी सुरक्षित होती है. ढैंचा की खेती किसानों के लिए किफायती भी ह. इसमें बहुत कम लागत आती है और इसके उपयोग से यूरिया जैसे रासायनिक खादों की एक-तिहाई जरूरत कम हो जाती है. खरपतवार और कीट नियंत्रण पर भी अतिरिक्त खर्च नहीं करना पड़ता. इसका एक और लाभ यह है कि यह भूजल स्तर बनाए रखने में मदद करता है, जिससे सिंचाई की जरूरत कम हो जाती है.
सहफसली खेती
किसान ढैंचा को मुख्य फसलों के साथ सहफसली खेती के रूप में भी अपना सकते हैं. इसकी झाड़ीदार प्रकृति खेतों में धूप का सीधा प्रभाव रोकती है, जिससे नमी बनी रहती है. इसकी जड़ों से नाइट्रोजन निकलकर अन्य फसलों को भी पोषित करती है. कुछ किसान ढैंचा को पशु चारे के रूप में भी उपयोग करते हैं. तीन माह में इसकी फसल से करीब 10 क्विंटल उत्पादन के साथ जलावन की लकड़ी भी प्राप्त की जा सकती है. इसकी खेती हरित क्रांति के साथ श्वेत क्रांति को भी बल देती है.
सरकारी मदद
जिलाधिकारी डॉ. दिनेश चंद्र ने बताया कि शासन की ओर से किसानों को ढैंचा के बीज और आवश्यक सहायता भी प्रदान की जा रही है. उन्होंने सभी किसानों से अपील की है कि वे इस जैविक खेती का फायदा उठाएं. ढैंचा जैसी परंपरागत विधियों को अपनाकर हम न केवल मिट्टी की सेहत सुधार सकते हैं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित खाद्यान्न भी सुनिश्चित कर सकते हैं.
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