बलिया: बलिया नगर के बिशुनीपुर मोहल्ले में कभी गूंजने वाली बच्चों की हंसी और सीखने की आवाजें अब सन्नाटे में बदल चुकी हैं. मोहल्ले के आजाद प्राइमरी पाठशाला परिसर में दिव्यांग एसरलेड आवासीय केंद्र और लर्निंग केंद्र स्थित है, जो कभी मुक-बधिर और दृष्टिहीन बच्चों के लिए शिक्षा, कला, जीवन अनुशासन और आत्मनिर्भरता का केंद्र था. यह केंद्र आज वीरान पड़ा है. कोरोना काल में बंद हुआ यह केंद्र अब अपनी दुर्दशा पर खुद ही रो रहा है.यहां पर कभी बच्चों को मीनू के मुताबिक समय पर पौष्टिक खाना दिया जाता था. वहां अब घास उग आई है. संगीत, नृत्य और गायन जैसी विधाओं में प्रशिक्षित होने वाले इन दिव्यांग बच्चों के लिए बना यह संस्थान आज धूल फांक रहा है.
बिखर गए बच्चों के सपनेकोरोना महामारी ने न जाने कितने सपनों को तोड़ा, लेकिन इस विद्यालय का बंद हो जाना तो उन मासूम दिव्यांग बच्चों के लिए किसी वज्रपात से कम नहीं था. जिनके अभिभावक कभी इस केंद्र को उम्मीद की किरण समझते थे, उनके सपने टूट चुके हैं. संसाधन यथावत हैं लेकिन देखरेख के बिना बर्बादी की ओर बढ़ रहे हैं.
प्रशिक्षण से आत्मनिर्भरता तक की राह होती थी तय
इस आवासीय विद्यालय में दिव्यांग बच्चों को सैनिकों की तरह अनुशासन में रहना सिखाया जाता था. उनके व्यक्तित्व विकास के लिए संगीत, गायन, कला, और अन्य स्किल्स की ट्रेनिंग दी जाती थी. मोहल्ले के लोग भी समय-समय पर कपड़े, मिठाइयाँ, कंबल आदि देकर सहयोग करते थे. सब कुछ सामूहिक भावना और करुणा से चलता था. दीवारों पर आज भी पुराना मीनू लिखा है, जो बीते गौरव की याद दिलाता है.
“मुझे बच्चों की प्रस्तुति देख आंखें नम हो गई थीं”मोहल्ले के वरिष्ठ नागरिक मुशीर जैदी बताते हैं, “किसी राष्ट्रीय पर्व पर मुझे इस विद्यालय में मुख्य अतिथि के तौर पर बुलाया गया था. जब बच्चों की सांस्कृतिक प्रस्तुतियाँ देखीं, तो मैं खुद को रोक नहीं पाया और मेरी आंखों से आंसू निकल पड़े थे. ऐसे बच्चों में कितनी प्रतिभा थी, ये मैं खुद देख चुका हूं.”
आज यह पूरा संस्थान बर्बादी की कगार पर है. दीवारें दरक रही हैं, अंदर झाड़ियां उग रही हैं और हर उपकरण धूल में दबा पड़ा है. अगर प्रशासन ने समय रहते ध्यान नहीं दिया, तो यह संस्था इतिहास में सिमट जाएगी और सैकड़ों बच्चों का भविष्य अंधेरे में खो जाएगा.
प्रशासन से की ये अपीलअब जरूरत है कि जिला प्रशासन इस ओर गंभीरता से ध्यान दे और इस दिव्यांग विद्यालय को फिर से शुरू कराए. यह न सिर्फ दिव्यांग बच्चों के लिए राहत की बात होगी, बल्कि समाज की संवेदनशीलता का परिचायक भी बनेगा. समाज और शासन का दायित्व है कि इन बच्चों को उनका हक लौटाएं.