गोंडा में पांच पीढ़ियों से चली आ रही पारंपरिक कला की कहानी
गोंडा नगर के प्रजापतिपुरम के कुछ परिवार अपनी परंपरागत कला से जुड़े हुए हैं। यहां 12 परिवार हैं जो पिछले पांच पीढ़ियों से मिट्टी के बर्तन और खिलौने बनाने का काम कर रहे हैं। लोकल 18 से बातचीत में राजेंद्र प्रसाद प्रजापति ने बताया कि यह काम उनके पूर्वजों से चला आ रहा है।
पहले यह कला गांवों में बहुत लोकप्रिय थी। मिट्टी के बने घड़े, कुल्हड़, दीये और खिलौनों की खूब मांग रहती थी। लोग शादी-ब्याह और त्योहारों में इन्हें खरीदते थे। आज भी मिट्टी के काम से ही इन परिवारों का पालन-पोषण होता है। महिलाएं घर में बर्तन और खिलौनों की आकृति बनाती हैं, जबकि पुरुष उन्हें पकाने और रंगने का काम करते हैं।
राजेंद्र बताते हैं कि पुराने समय में मिट्टी के बने घड़े, कुल्हड़, दीये, सुराही और खिलौनों की बहुत मांग रहती थी। गांवों में हर त्योहार, शादी-ब्याह और धार्मिक आयोजन में ये मिट्टी के बने सामान ही इस्तेमाल किए जाते थे। यही वजह थी कि यह कला न केवल उनकी आजीविका का साधन थी, बल्कि उनकी पहचान भी बन गई।
मिट्टी के काम में परिवार के सभी सदस्य हिस्सा लेते हैं। महिलाएं घर पर बर्तन और खिलौनों की आकृति बनाती हैं, जबकि पुरुष उन्हें पकाने और रंगने का काम करते हैं। इस काम में धैर्य और मेहनत दोनों की जरूरत होती है। एक-एक बर्तन या खिलौना तैयार करने में कई घंटे लग जाते हैं। पहले यह सब हाथ से किया जाता था, अब कुछ जगहों पर चाक और भट्टी का उपयोग होने लगा है।
अब समय के साथ इस पारंपरिक कला की मांग कम होती जा रही है। पहले जो घड़े और दीये हर घर में इस्तेमाल होते थे, उनकी जगह अब प्लास्टिक और स्टील के बर्तनों ने ले ली है। राजेंद्र प्रसाद कहते हैं कि अब पहले जैसी बिक्री नहीं होती। त्योहारों के समय या मेलों में ही थोड़ा-बहुत सामान बिक जाता है। लेकिन फिर भी हम इस काम को छोड़ना नहीं चाहते, क्योंकि यही हमारे पूर्वजों की निशानी है।
इन परिवारों को अब उम्मीद है कि सरकार और समाज मिलकर इस पारंपरिक कला को बढ़ावा देंगे। अगर इन्हें सरकारी सहयोग, प्रशिक्षण और बाजार मिल जाए, तो मिट्टी की यह कला फिर से लोगों के घरों तक पहुंच सकती है। आज भी कई लोग मिट्टी के बने बर्तनों को पसंद करते हैं, क्योंकि वे स्वास्थ्य के लिए अच्छे और पर्यावरण के अनुकूल होते हैं।