नई दिल्ली. उच्चतम न्यायालय ने बुधवार को कहा कि शिक्षा, सांस्कृतिक शक्ति का एक बहुत महत्वपूर्ण स्रोत है और यह नहीं कहा जा सकता है कि संविधान लागू होने से पहले की संस्था संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अधिकार का दावा करने की हकदार नहीं है. अनुच्छेद 30 धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों के शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन के अधिकार से संबंधित है.

प्रधान न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात-सदस्यीय संविधान पीठ अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) के अल्पसंख्यक दर्जे के जटिल प्रश्न पर दलीलें सुन रही है. पीठ ने कहा कि अनुच्छेद 30 की आवश्यकताओं को पूरा करने वाला कोई भी संस्थान संबंधित अधिकार का दावा करने का हकदार है, भले ही इसकी स्थापना संविधान को अपनाने से पहले की गई हो या उसके बाद.

प्रधान न्यायाधीश ने केंद्र सरकार की ओर से पेश हो रहे सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से कहा, “हम यह नहीं कह सकते कि संविधान लागू होने से पहले की कोई संस्था संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अधिकार का दावा करने की हकदार नहीं है. जाहिर है, ऐसे संस्थान तब तक हकदार हैं, जब तक वे दो मानदंडों पर खरा उतरते हों, – पहला, अल्पसंख्यक द्वारा स्थापित और दूसरा, अल्पसंख्यक द्वारा प्रशासित.”

मेहता ने संविधान पीठ से अनुरोध किया था कि एएमयू अधिनियम, 1920 को संविधान के अनुच्छेद 30 के संदर्भ में न पढ़ा जाए. मेहता ने इस मामले में पांचवें दिन की सुनवाई के दौरान कहा, “कृपया 1920 के अधिनियम को अनुच्छेद 30 के संदर्भ में न पढ़ें. यह इतिहास के उस समय की बात है, जब अनुच्छेद 30 नहीं था. भारतीय संविधान वहां नहीं था. अल्पसंख्यक की कोई अवधारणा नहीं थी, मौलिक अधिकारों की कोई अवधारणा नहीं थी.”

न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा, “वास्तव में, आपका तर्क इस बात पर आधारित है कि जब विश्वविद्यालय की स्थापना 1920 में हुई थी तब यह संप्रदाय पर आधारित संस्थान नहीं था. इसलिए, बाद के घटनाक्रम अर्थात् 26 जनवरी, 1950 को संविधान को अपनाना इस कारण से एक सांप्रदायिक संस्थान नहीं बना सकता है क्योंकि आपने उस सांप्रदायिक दर्जे को त्याग दिया था. यह आपकी दलील है.”

संविधान पीठ में न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायपूर्ति जे. बी. पारदीवाला, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता, न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा भी शामिल थे. पीठ ने कहा कि एक व्यक्ति को यह भी समझना होगा कि यह (1920) वह अवधि थी, जब पूर्ण नियंत्रण ब्रिटेन की शाही शक्ति में निहित था. न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा कि ब्रिटिश सरकार नहीं चाहती थी कि भारत में कोई भी संस्था इतनी शक्तिशाली हो जाए कि शाही प्रभुत्व की शक्ति पर असर पड़े.

न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा, “शिक्षा, सांस्कृतिक शक्ति का एक बहुत महत्वपूर्ण स्रोत है और हमने इसे आजादी से पहले तथा आजादी के बाद भी महसूस किया है.” उन्होंने कहा कि कानून ऐसा नहीं है कि कोई संस्थान अनुच्छेद 30 के तहत अधिकार का दावा तभी कर सकता है जब वह 1950 के बाद स्थापित किया गया हो.

सुनवाई के दौरान पीठ ने यह भी पूछा कि क्या 1920 से गैर-मुसलमानों को एएमयू का कुलपति या प्रति-कुलपति नियुक्त किया गया है. मेहता ने कहा कि उन्हें बताया गया है कि चार गैर-मुसलमानों को नियुक्त किया गया है. पीठ ने कहा, “ऐसा क्यों है कि संविधान के लागू होने से पहले और उसके बाद, लगातार सरकारों द्वारा कुलपतियों के तौर पर प्रमुख पसंद मुस्लिम रहे हैं. यह निश्चित रूप से एक कारक है, जिसे ध्यान में रखना होगा.”

मेहता ने कहा, “क्या सरकार द्वारा किसी विशेष समुदाय को नियुक्त करने से (भले ही ऐसा जरूरी न हो) उस विश्वविद्यालय का चरित्र बदल सकता है?” बुधवार को जैसे ही सुनवाई शुरू हुई सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि रिकॉर्ड से यह पता चलता है कि एएमयू और बीएचयू (बनारस हिंदू विश्वविद्यालय) दोनों को उस समय तत्कालीन ब्रिटिश सरकार से प्रति वर्ष एक लाख रुपये मिलते थे.

उन्होंने कहा, “आज की तारीख में, एएमयू को प्रति वर्ष 1,500 करोड़ रुपए मिलते हैं. उनके पास कुछ फीस आदि भी हो सकती है…लगभग 30-40 करोड़ रुपए. उन्होंने कहा कि आज भी एएमयू का संचालन प्रमुख अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा नहीं किया जाता है.

दलीलें पूरी नहीं हुईं और मामले की अगली सुनवाई 30 जनवरी को होगी. शीर्ष अदालत ने 12 फरवरी, 2019 को इस बेहद विवादास्पद मुद्दे को निर्णय के लिए सात-सदस्यीय संविधान पीठ के पास भेज दिया था. इसी तरह का एक संदर्भ पहले भी दिया गया था.
.Tags: Aligarh Muslim University, DY Chandrachud, Supreme Court, Tushar mehtaFIRST PUBLISHED : January 25, 2024, 02:36 IST



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