Uttar Pradesh

बेटा सरकारी प्रिंसिपल, मां वृद्धाश्रम में! दर्द एक मां का…जिसे लाखों कमाने वाले बेटे ने भी नहीं समझा

मथुरा: मां और पिता का रिश्ता सिर्फ खून का नहीं, बल्कि जीवन दर्शन और त्याग का प्रतीक है. पिता सागर की गहराई जैसे शांत, मां गंगा की तरह निर्मल और बहती हुई. पिता अंधेरों में दीपक की तरह राह दिखाते हैं, तो मां भटके हुए को सही दिशा देती है. कहते हैं, मां-पिता इन दो शब्दों में पूरा संसार समाया है. लेकिन अफसोस, यही सच्चाई आज के समय में टूटती हुई दिख रही है.

एक मां-पिता अपने बच्चों के लिए जीवन भर मेहनत करते हैं. बेटे-बेटी को पालते हैं, पढ़ाते-लिखाते हैं, नौकरी दिलाने तक हर कदम पर उनका साथ देते हैं. बदले में बस इतना चाहते हैं कि बुजुर्ग होने पर बच्चे उनका सहारा बनें. लेकिन जब वही बेटे-बेटियां उन्हें घर से निकालकर वृद्धाश्रम भेज दें, तो दिल पर क्या बीतती होगी? ऐसी ही एक सच्ची और दर्दनाक कहानी आज हम आपको बताने जा रहे हैं. यह कहानी है एक ऐसे बेटे की, जो लाखों रुपये कमाने के बावजूद अपनी मां को घर से निकाल देता है, और वह मां आज वृंदावन के वृद्धाश्रम में अकेली दिन गुजार रही है.

बदलते समय में बदलता रिश्ता
पिता फूल है कांटों के संग, खुशबू है मां. पिता रात के ध्रुव तारे जैसे, दिशा दिखाती है मां. पिता ठंड में सूरज जैसा, गर्मी में शीतल छांव है मां. लेकिन 21वीं सदी की तेज रफ्तार जिंदगी में इन रिश्तों की परिभाषा बदल चुकी है. अब कई बेटे-बेटियां अपने माता-पिता को बोझ समझने लगे हैं. उन्हें घर से दूर, एक झटके में अलग कर देते हैं.

वृंदावन के वृद्धाश्रमों में ऐसी हजारों माताएं अपना जीवन बिता रही हैं, जिन्हें अपनों ने ठुकरा दिया है. जिनके दिलों में अपने परिवार की यादें अब भी ताजा हैं, लेकिन वे यादें सिर्फ आंखों में आंसू और दिल में दर्द भर जाती हैं. कई बार ये माताएं चुपके से रो लेती हैं और अपने मन को समझा देती हैं कि शायद उनके बेटे-बेटियां दूर रहकर खुश होंगे.

गैर लोग इनके हमदर्द बन जाते हैं, लेकिन अपने ही इनके लिए अजनबी हो जाते हैं. वृंदावन के गौरी गोपाल आश्रम में भी सैकड़ों माताएं रह रही हैं. किसी का बेटा अधिकारी है, तो किसी का बेटा सरकारी स्कूल का प्रिंसिपल. लाखों रुपये महीना कमाने के बावजूद, इनकी मां के लिए दो वक्त की रोटी और सिर पर छत देने की जिम्मेदारी नहीं उठाई.
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दर्द बयां करती मीना बाई की कहानीछत्तीसगढ़ की मीना बाई भी इन्हीं में से एक हैं. पति की मौत के बाद उन्हें बेटे ने घर में जगह नहीं दी. मजबूर होकर वे वृंदावन चली आईं. अब यहां रहते हुए उन्हें 5 साल पूरे हो गए हैं और छठा साल चल रहा है.

मीना बाई बताती हैं कि उनका बेटा सरकारी प्रिंसिपल है और लाखों रुपये महीने कमाता है. परिवार भी संपन्न है, क्योंकि उनके पति किसान थे और घर में कोई कमी नहीं थी. फिर भी बेटे ने अपनी ही मां को दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया. आज मीना बाई की जिंदगी वृद्धाश्रम की चारदीवारी में सिमट गई है.

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