हाइलाइट्सपंचतंत्र जैसा उम्दा बाल साहित्य हिंदी में उपलब्ध हैकिताबों में बच्चों की घटती रुचि से प्रकाशन प्रभावित ज्यादातर बच्चों का बहुत सारा टाइम निगल ले रहा है मोबाइल और इंटरनेटबाल साहित्य किसी भी सभ्य समाज का वह हिस्सा होता है जो भविष्य की दिशा तय कर रहा होता है. संस्कृत और फिर उससे लेकर हिंदी साहित्य ने बाल साहित्य के लिए उत्कृष्ट भंडार तैयार किया. इसका चलन भी खूब हुआ. यहां तक कि एक समय तक ये लोगों के जीवन का हिस्सा रहा. लेकिन हाल के एक डेढ़ दशक में बच्चों की लगन मोबाइल टैब, लैपटॉप और कंप्यूटरों में लग गई है. बच्चे अपने खाली और आगे जा कर कहा जाए कि पढ़ने वाले समय में से एक हिस्सा इन्हीं डिजिटल डिवाइस पर स्वाहा कर रहे हैं. खेल मैदानों में नहीं बल्कि छोटी से स्क्रीन तक सिमट गया है. कहानियां और कहानियां सुनाने वाले, दोनों उनसे बहुत दूर हो गए हैं.

दुनिया भर में की श्रेष्ठ सभ्यताएं अपने आने वाले समय को दिशा देने के लिए बच्चों के साहित्य पर जरुर काम करती हैं. भारतीय वांगमय में इसका खजाना है. ‘पंचतंत्र’ अपने आप में विश्व साहित्य के लिए आकर्षण का बहुत बड़ा केंद्र है. तमाम भाषाओं में इसकी कथाओं का अनुवाद किया जा चुका है. दरअसल, इसकी कहानियां बाल मन को सिर्फ गुदगुदाती ही नहीं हैं, बल्कि बाल मन को बड़ी खूबी के साथ उस ओर मोड़ने में सक्षम हैं जिधर इसके सर्जक चाहते हैं. कथानक और कहानी के नतीजे इस कदर प्रभावी हैं कि बहुत सारी कहानियों का असर मानव मन पर जीवन भर रहता है. हो सकता है कि कालांतर के साथ कुछ कहानियों को इसमें जोड़ दिया गया हो, लेकिन मौलिक तौर पर जो कहानियां हैं उन्हे देख कर सहज ही समझ में आ जाता है कि कहानियों को मोती की तरह चुन चुन कर सहेजा गया है.

कहानियों का विस्तारकहानियों की ये यात्रा वाचिक परंपरा में खूब फली-फूली. बुजुर्ग बच्चों को जोड़ने के लिए उन्हें रोचक कथाएं सुना कर बांधे रहते थे. इस तरह बाल कहानियों की यात्रा चलती रही. हिंदी भाषा को गढ़ने-रचने वाले साहित्यकारों ने साहित्य के समानांतर ही बाल साहित्य का निर्माण भी किया. भारतेंदु काल में ही ‘बाल दर्पण’ और ‘बाल बोधिनी’ नाम की पत्रिकाओं के प्रकाशन किए गए. इसी क्रम में ‘बाल प्रभाकर’, ‘शिशु’, ‘बाल सखा’, ‘छात्र सहोदर’, ‘वीर बालक’, ‘बालक’, ‘चमचम’, ‘तितली’ और ‘बाल बोध’ जैसी पत्रिकाएं छापी गईं. ये सभी प्रकाशन आजादी के पहले किए जा रहे थे. आजादी के बाद की चर्चा की जाए तो ‘प्रकाश’, ‘अमर कहानी’ और ‘मनमोहन’ जैसी पत्रिकाएं निकाली गईं.

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इसके बाद ‘चंदामामा’ का प्रकाशन शुरु हुआ और ये भी विशेष बात रही कि ‘चंदामामा’ अहिंदी-भाषी इलाके से शुरू की गई और बहुत लोकप्रिय पत्रिका के तौर पर याद की जाती है. चित्रों और कार्टूनों से भरपूर इस पत्रिका ने बच्चों को खूब रिझाया. देश के दूसरे प्रकाशन केंद्रों ने भी बच्चों के लिए खूब सारी पत्रिकाएं छापीं, लेकिन सातवें –आठवें दशक में बालपन जी रहे लोगों को खूब याद होगा कि ‘चंदा मामा’, ‘बाल भारती’, ‘नंदन’, ‘चंपक’ ऐसी पत्रिकाएं रहीं जिनका पूरी की पूरी पीढ़ी पर असर था. बाद के दौर में चित्र कथा के तौर पर कॉमिक्स छपने लगीं जिनके चरित्र बच्चों को अलग ही दुनिया में ले जाते थे. चाचा चौधरी, लंबू-छोटू, छोटू-मोटू जैसे चरित्र तो भी वास्तविक दुनिया से कहीं जुड़े होते थे. बहुत सारे कैरेक्टर उसी तरह किसी और दुनिया से थे, जैसे इस दौर के टीवी कार्टूनों के बहुत सारे कैरेक्टर. हां, चाचा चौधरी का एक कैरेक्टर साबू ज्यूपिटर ग्रह से आया था और जब उसे गुस्सा आता था तो ज्वालामुखी फट पड़ता था, लिहाजा रोचक ये था कि वो हवाई जहाज के अंदर बैठने की बजाया छत पर बैठ कर यात्रा करता था. बहरहाल, कैरेक्टर रोचक बनाने के लिए जो भी रचा गया, कैरेक्टर का अता-पता था.

बाद के दौर में जो कॉमिक्स आए उनके कैरेक्टर का सिलसिला कहां से था, ये रहस्य जैसा बनने लगा. हो सकता है उनमें से तमाम चरित्र दूसरी भाषाओं से लिए गए हों और उन्हें अपना बनाने के लिए उनमें इधर-उधर की बातें डाल दी गईं.

टीवी और इंटरनेट की दुनियाइधर 1984 के उत्तरार्द्ध में देश भर टीवी का प्रसार देश में तेजी से होने लगा. ये समय सरकारी कंट्रोल वाले दूरदर्शन का था. इस पर ऊटपटांग सीरियल्स तो नहीं आए लेकिन बच्चों को पढ़ कर समय काटने का एक अन्य विकल्प मिल गया. समय बदलने के साथ जब केबल टीवी का असर बढ़ा तो वहां कार्टून के चैनल्स ही मिलने लगे. ये प्रकोप डीटीएच के साथ और बढ़ा. कई कार्टून चैनल सुलभ हो गए. इसी के साथ माता –पिता को ये सुविधा भी मिल गई कि वो पढ़ाई की उम्र से भी छोटे बच्चे को टीवी कार्टून में उलझा कर अपने जरूरी काम निपटाने लगे. टीवी का ये सिलसिला मोबाइल फोन के साथ भी बढ़ा. रोते हुए बच्चे को बझाने का सबसे सहज तरीका उनके बहुत सारे अभिभावकों को ये मिला कि उसके हाथ में एंड्ररायड फोन पकड़ा दिया जाए. साथ उसे कुछ रोचक दिखाना भी था लिहाजा कोई कार्टूननुमा शो चला भी दिया जाता था.

इन दोनों का असर ये हुआ कि अगर कोई सर्वे कराया जाय तो मिलेगा कि बहुत ही कम परिवार ऐसे हैं जिनके बच्चे सार्थक बाल साहित्य पढ़ने में रुचि रखते हों. मौका मिलते ही उनके लिए फोन, टैब और लैपटॉप या कम्यूटर पर चल रहा कोई शो और गेम में घुस जाना ही बहुत से बच्चों की आदत बन गई है. थोड़ा समझदार होने पर ये बच्चे सोशल मीडिया के जाल में फंस कर अपना समय गंवाने लगे. ये सब इस हद तक बढ़ने लगा कि जानकार और विशेषज्ञ सेहत के लिए आग्रह कर रहे हैं कि सप्ताह में कम से कम एक दिन उन्हें डिजिटल उपवास रखना चाहिए. यानी उस दिन गेम्स या शो बगैरह से बचें.

कोरोना में स्थिति और बिगड़ीकोढ़ में खाज की स्थिलकति कोरोना के दौरान हो गई. कोरोना से परेशान लोगों को ऑनलाइन स्टडी के नाम पर बच्चों को आधिकारिक तौर पर फोन और कंप्यूटर जैसे इंस्टूमेंट देने पड़े. बहुत से बच्चों का समय इन इंस्टूमेंट्स पर वक्त की बर्बादी वाले गेम्स या शो पर गुजराते हैं. ऐसा नहीं है कि ये नए डिजिटल इंस्टूमेंट बिल्कुल ही बेकार हैं बल्कि इनका सही और तार्किक प्रयोग बच्चों के लिए फायदेमंद भी हैं और जरूरी भी. फिर भी अच्छे और सार्थक साहित्य का स्थान दूसरी कोई भी चीज नहीं ले सकती.
.Tags: Literature, Pandit Jawaharlal NehruFIRST PUBLISHED : November 13, 2023, 20:11 IST



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