Uttar Pradesh

केले की खेती : केले के खेती का ये सबसे सुरक्षित तरीका, जानें कम लागत में बंपर पैदावार का शॉर्टकर्ट

केले की खेती: अजैविक विकारों से बचाव के लिए वैज्ञानिक प्रबंधन

केला न केवल एक फल है, बल्कि किसानों की आजीविका और ग्रामीण क्षेत्रों की अर्थव्यवस्था का अहम हिस्सा है. खेती करते समय कई बार पौधे रोगकारकों (पैथोजन) से नहीं, बल्कि पर्यावरणीय और पोषण संबंधी कारणों से प्रभावित हो जाते हैं. इन्हें अजैविक विकार कहा जाता है. यदि समय पर पहचान और वैज्ञानिक प्रबंधन नहीं किया गया तो उपज और गुणवत्ता दोनों घट जाते हैं.

सूखा, जलभराव, चरम तापमान, पोषक तत्वों की कमी, हवा से क्षति, सनबर्न, लवणता और शाकनाशी के गलत उपयोग जैसे कारण केले की खेती को गंभीर रूप से प्रभावित करते हैं. इसके साथ दोहरी चुनौती होती है कि केले के पौधों की पत्तियां बड़ी होती हैं और तेज वृद्धि करती हैं, इसलिए इन्हें पर्याप्त नमी चाहिए. अनियमित वर्षा या पानी की कमी से पत्तियां मुरझा जाती हैं, गुच्छे छोटे बनते हैं और उपज घट जाती है. दूसरी ओर, खराब जल निकासी से जलभराव की समस्या पैदा होती है. ऐसी स्थिति में जड़ें सड़ने लगती हैं, पौधे कमजोर पड़ जाते हैं और कभी-कभी मर भी जाते हैं. इसलिए ड्रिप सिंचाई, मल्चिंग और जल निकासी चैनल बनाना जरूरी है.

केले की खेती 24 से 35 डिग्री सेल्सियस के तापमान पर आदर्श रहती है. लेकिन जब गर्मी अधिक हो जाती है तो पत्तियों और फलों पर सनबर्न के दाग दिखाई देने लगते हैं. ठंड बढ़ने पर छद्म तना काला पड़ जाता है और पौधे की वृद्धि रुक जाती है. कई बार सर्दियों में गुच्छा बाहर नहीं निकलता, जिसे थ्रोट चोकिंग कहा जाता है. इन समस्याओं से बचने के लिए छायादार नेट, स्प्रिंकलर सिंचाई और विंडब्रेक का प्रयोग कारगर होता है. पौधें के जो भाग सूखते जाए, उसे पौधें से अलग करते रहे, ताकि पौधें का विकास न रुक पाए.

पौधों की सेहत संतुलित पोषण पर निर्भर करती है. नाइट्रोजन की कमी से पत्तियां पीली पड़ जाती हैं और पौधे का विकास रुक जाता है. पोटैशियम की कमी से फलों का आकार छोटा हो जाता है और गुच्छे कमजोर बनते हैं. मैग्नीशियम की कमी से पत्तियों में हरित लवक (क्लोरोफिल) टूटने लगता है. कैल्शियम की कमी से पत्तियां मुड़ जाती हैं और जड़ें कमजोर हो जाती हैं. इसलिए किसानों को समय-समय पर मिट्टी और पत्तियों का परीक्षण कराकर संतुलित उर्वरक और जैविक खाद का प्रयोग करना चाहिए.

केले की जड़ें उथली और तना लंबा होता है, जिससे यह तेज़ हवा में आसानी से गिर जाता है. इससे पौधे टूट जाते हैं और उपज घट जाती है. खेत के चारों ओर विंडब्रेक लगाने और पौधों को सहारा देने से यह नुकसान कम होता है. तेज धूप में पत्तियां और फल झुलस जाते हैं. इसे रोकने के लिए पौधों के बीच उचित दूरी रखें और आवश्यकता पड़ने पर छाया नेट या कवर लगाएं. कुछ क्षेत्रों में मिट्टी की लवणता (खारापन) भी उत्पादन घटाती है. ऐसे में खेत में जिप्सम डालना, नमक-सहिष्णु पौधे लगाना और पर्याप्त सिंचाई करना बेहतर उपाय है.

खेत की खरपतवार नियंत्रण के लिए शाकनाशी का प्रयोग आम है, लेकिन अगर इनका उपयोग सही ढंग से न किया जाए तो केले के पौधे पर विपरीत असर पड़ता है. पत्तियों पर दाग, बौनापन और असामान्य वृद्धि इसके लक्षण हैं. इसलिए अनुशंसित शाकनाशी ही उचित मात्रा और सही समय पर प्रयोग करना चाहिए. कृषि एक्सपर्ट कहते हैं, “केले की खेती में अजैविक विकारों का समाधान वैज्ञानिक प्रबंधन से किया जा सकता है”. सूखा तनाव से बचाव हेतु ड्रिप या माइक्रो-स्प्रिंकलर सिंचाई और मल्चिंग अपनाएं. तेज हवा से बचाव के लिए खेत के चारों ओर विंडब्रेक लगाएं और पौधों को सहारा दें. सनबर्न से बचने के लिए पौधों के बीच उचित दूरी व छाया व्यवस्था करें. नियमित निगरानी और समय पर हस्तक्षेप से उपज सुरक्षित रहती है.

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