साबूदाना बनाने की रोचक प्रक्रिया
साबूदाना भारतीय रसोई का एक अहम हिस्सा है, खासकर व्रत-उपवास के दौरान इसका खूब सेवन किया जाता है. खिचड़ी, खीर, वडा या पापड़ – हर जगह साबूदाने का इस्तेमाल होता है. लेकिन अक्सर लोग यह नहीं जानते कि साबूदाना आखिर बनता कैसे है. साबूदाना असल में कसावा (टैपिओका) नामक पौधे की जड़ से तैयार किया जाता है. यह पौधा अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका का मूल निवासी है, लेकिन भारत में भी बड़े पैमाने पर इसकी खेती होती है. कसावा की जड़ आलू जैसी दिखती है और स्टार्च से भरपूर होती है. इसी जड़ को प्रसंस्करण (प्रोसेसिंग) करके छोटे-छोटे सफेद मोती जैसे दाने तैयार किए जाते हैं, जिन्हें हम साबूदाना कहते हैं.
साबूदाना बनाने की प्रक्रिया बहुत ही रोचक है. सबसे पहले कसावा की जड़ों को खेत से निकालकर अच्छी तरह धोया जाता है ताकि मिट्टी और गंदगी निकल जाए. इसके बाद इन जड़ों को छीलकर उनका गूदा निकाला जाता है. गूदे को पीसकर गाढ़ा घोल बनाया जाता है. इस घोल को एक बड़े कपड़े या छलनी में डालकर दबाया जाता है ताकि सारा तरल और स्टार्च अलग हो सके. स्टार्च का यही हिस्सा साबूदाने का आधार है. अगले चरण में इस स्टार्च को सुखाया जाता है और फिर छोटे-छोटे दानों के रूप में गूंथकर तैयार किया जाता है. कई बार मशीनों की मदद से स्टार्च को गोल-गोल मोती जैसा रूप दिया जाता है. तैयार दानों को फिर धूप में या विशेष ड्रायर में सुखाया जाता है. पूरी तरह सूखने के बाद ये मोती कठोर और चमकदार बन जाते हैं. यही साबूदाना है, जो बाजार में हमें पैक होकर मिलता है.
साबूदाने में प्रोटीन और फाइबर की मात्रा कम होती है, लेकिन यह ऊर्जा का एक बड़ा स्रोत है. इसमें कार्बोहाइड्रेट भरपूर होता है, इसलिए उपवास के समय यह शरीर को लंबे समय तक शक्ति देता है. यही कारण है कि व्रत के दौरान साबूदाने की खिचड़ी, खीर या वडा सबसे ज्यादा खाए जाते हैं. आजकल कई फैक्ट्रियों में बड़े पैमाने पर साबूदाना बनाया जाता है. स्वचालित मशीनों और आधुनिक तकनीक की वजह से इसकी क्वालिटी बेहतर हो गई है. हालांकि, ग्रामीण इलाकों में अभी भी पारंपरिक तरीकों से साबूदाना तैयार किया जाता है. इस तरह, साधारण दिखने वाले इन सफेद दानों की कहानी काफी रोचक है. अगली बार जब आप साबूदाने की खिचड़ी या खीर खाएं, तो याद रखिए कि यह छोटे-छोटे मोती कसावा की जड़ों से लंबी प्रक्रिया के बाद आपके थाली तक पहुंचे हैं.

