अलीगढ़: इस्लाम में बराबरी और इंसानियत की भलाई को अपनी बुनियाद बनाया गया है. यही वजह है कि शरीयत में ब्याज यानी सूद को सख्ती से हराम करार दिया गया है. ब्याज जरूरतमंद पर बोझ बढ़ाता है और अमीर-गरीब के बीच नाइंसाफी को जन्म देता है. अल्लाह ने मालदारों को दौलत इसलिए दी है कि वे गरीब और जरूरतमंद की मदद करें, न कि उनसे मुनाफा कमाएं. इसी इंसाफ को बरकरार रखने के लिए इस्लाम में ब्याज से दूर रहने की हिदायत दी गई है.
इस्लाम में ब्याज लेना और देना दोनों ही हराम है. इसकी वजह यह है कि इस्लाम ने सभी इंसानों के लिए इंसाफ और बराबरी के उसूल बनाए हैं, ताकि किसी को नुकसान न पहुँचे और किसी के साथ भेदभाव न हो. ब्याज हराम इसलिए माना गया है कि जब कोई जरूरतमंद शख्स किसी सक्षम व्यक्ति से मदद लेता है, तो उस पर अतिरिक्त बोझ न डाला जाए. लेकिन जब उसकी मदद को ब्याज के साथ जोड़ा जाता है, तो वह जरूरतमंद और भी दबाव में आ जाता है और उसकी मुश्किलें बढ़ जाती हैं.
मौलाना चौधरी इफराहीम हुसैन का कहना है कि इस्लाम का मकसद इंसानों की सहूलियत और भलाई है. अल्लाह ने जिन लोगों को माल-ओ-दौलत दी है, उन्हें इसका इस्तेमाल जरूरतमंदों की मदद के लिए करना चाहिए न कि उनसे मुनाफा कमाने के लिए. अगर मदद के नाम पर अतिरिक्त रकम वसूली जाए तो यह गरीब और मजलूम इंसान पर जुल्म के बराबर है. इसी बराबरी और इंसाफ को कायम रखने के लिए शरीयत ने ब्याज को हराम ठहराया है और मुसलमानों को इससे दूर रहने की हिदायत दी है. यही वजह है कि इस्लाम में ब्याज को हराम करार दिया गया है.