फर्रुखाबाद में आज भी जीवित है परंपरा और संस्कृति की वो झलक जो सैकड़ों साल पुरानी है. यहां के कारीगर आज भी ‘कुश’ की टहनियों से देसी लकड़ी के सूप (छाज) तैयार करते हैं, जिनका उपयोग अनाज छानने से लेकर शादी-विवाह और दरिद्रता भगाने जैसी धार्मिक परंपराओं तक में किया जाता है. जानिए कैसे बनता है ये पारंपरिक सूप और क्यों सुबह 4 बजे इसे बजाने की परंपरा आज भी निभाई जाती है.
ग्रामीण भारत में आज भी जब खेत-खलिहान से अनाज घर आता है, तो उसे साफ करने के लिए किसी महंगी मशीन नहीं, बल्कि लकड़ी और कुश की टहनियों से बना पारंपरिक ‘सूप’ ही इस्तेमाल किया जाता है. यह सूप न केवल अनाज छानने के लिए, बल्कि शादी-ब्याह और मांगलिक कार्यक्रमों में भी अपनी मौजूदगी दर्ज कराता है.
कुश की टहनियों से बनने वाला यह सूप, जो हर गांव के घर में आसानी से मिल जाता है, अब भी फर्रुखाबाद के कई कारीगरों के लिए रोजगार का जरिया बना हुआ है. इन कारीगरों की पीढ़ियां दशकों से इसकी निर्माण कला को संजोए हुए हैं.
कैसे तैयार होता है पारंपरिक सूप? बरसात के मौसम के बाद बलुई भूमि में उगने वाले पौधे ‘पतेल’ यानी कुश से यह सूप तैयार किया जाता है. कारीगर पहले इन पौधों की पतली-पतली टहनियों को चुनते हैं और उन्हें पानी में भिगोकर मुलायम बनाते हैं. फिर उन्हें हाथों से तराशकर, काटकर और आकार देकर एक सुंदर, मजबूत सूप का रूप दिया जाता है.
मॉडर्न दौर में भी कायम है डिमांड. कारीगर रामरतन बताते हैं कि आज भले ही स्टील और प्लास्टिक के आधुनिक सूप बाज़ार में आ चुके हैं, लेकिन पारंपरिक सूप की अहमियत अब भी बरकरार है. लोग इसे सिर्फ अनाज साफ करने के लिए ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं को निभाने के लिए भी खरीदते हैं.
कुश के सूप से भगाई जाती है दरिद्रता. हिंदू परंपराओं के अनुसार, कुश के सूप को सुबह-सुबह घर के कोने-कोने में बजाकर दरिद्रता को दूर भगाया जाता है. यह सदियों पुरानी परंपरा आज भी कई घरों में निभाई जाती है. शास्त्रों में भी इसका उल्लेख मिलता है ‘शेष रात्रौ दरिद्रा निहिषार्णम’, जिसका अर्थ है – रात के अंतिम पहर में सूप बजाकर दरिद्रता को दूर भगाना.